गुरुवार, 18 अगस्त 2011

क्या सही मे गांधीगिरी?











क्या सही मे गांधीगिरी या महज़ भेड़चाल
या कहे की यही वक़्त भ्रष्ट का ये काल है
जाना नहीं लोकपाल इसमे है क्या बवाल
चल दिये पीछे-पीछे, सभी यहाँ बेहाल है

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चरणों मे गुरुवर के नमन मेरा बारम्बार








तुम्ही मेरी मंज़िल, तुम्ही हो सहारे
लगादों ये नैया जगत के किनारे
नहीं जान पाया ये कैसा अंधेरा
तुम्हारे बिना गुरुवर नहीं है बसेरा

सोमवार, 8 अगस्त 2011

--एक फोन कॉल--

"हैलो दीपक जी से बात हो सकती है" फोन के दूसरी तरफ से किसी लड़की की आवाज़ थी कुछ पंजाबी टाइप

मैं: हाँ बोल रहा हूँ कहिए क्या काम है

"आहाना बोल रही हूँ चंडीगढ़ से" लड़की बोली

मैं: हांजी बोलिए

आहाना: आज दिन मे अपने वोडाफ़ोन मे फोने किया था तो मेरे से ही बात हुयी थी।

मैं: ओह हांजी

सोमवार, 25 जुलाई 2011

एक सुनहरा सफर यादों का

यात्रा व्रतांत  - 01



येलो जी काठगोदाम स्टेशन भी आ पाहुचे हालांकि गाड़ी तो काफी स्टेशन पहले ही खाली हो चुकी थी और वैसे भी ये इस तरफ का इंडिया का अंतिम स्टेशन है जिस डब्बे  मे मैं बैठा था उसमे हमारे आलवा मात्र दो या तीन सवारी ही होगी। मैंने भी सोचा की गाड़ी जल्दी चलने वाली तो नहीं इसीलिए आराम से जूते पहन रहा था की इतने मे मेरे दोस्त ने मुझे आवाज़ लगाई दीपक भाई ज़रा जल्दी आ। मैं जिज्ञासा मैं उसकी तरफ लपका की क्या हुआ उसने अपना हाथ उठाते हुये एक और इशारा किया की वो देख क्या है उफ मैं भी वो नज़ारा देख चौंक गया था मानो घनघोर काले बादल (जो मुझे शायद ही कभी मेरी दिल्ली मैं देखने को मिलते है) पहाड़ की चोटी पर नतमस्तक थे। उन्हे देख कर ऐसा लग रहा था की पहाड़ की चोटी बदलो को चीरती हुयी अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर रही हो। इन दृश्यों को देख मेरे मन में भी एक सवाल बाहर आने का इंतज़ार कर रहा था की अभी तो मैं ट्रेन से उतरा भी नहीं हूँ।

रविवार, 24 जुलाई 2011

दिल्ली ट्रेफिक पुलिस: महज़ एक समस्यायों का पुलिंदा या कुछ और

"फेसबूक पर एक पन्ना"






महज़ सामाजिक वैबसाइट पर अपना पन्ना बना देने से या फिर सदस्यों के द्वारा की गयी टिप्पणी या शिकायत के उपर अपनी "पूर्व निर्धारित" टिप्पणी देने से समाधान नहीं निकलता। मैं ऐसा बिलकुल नहीं कहना चाहता हूँ की यह पन्ना महज़ एक दिखावा है यहाँ से अमल भी किया जाता है मैं आपके द्वारा की गयी इस पहल के लिए आपको बधाई देना चाहता हूँ की आपकी कोशिश काफी कबीले तारीफ है परंतु इतना ज़रूर कहना चाहूँगा की "रोचक नंबर प्लेट" के चालान भर काटने से आम जनता को राहत नहीं मिलती है।

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

फिर निकल पड़ा खोजी दस्ता दूढ्ने उन शैतान को

अब क्या होगा सरकार क्या करेगी, एजेंसियों से क्या बयान आयेगा। कई जगह इनेर्नेट पर, टीवी पर बस सब तरफ इसी बारे मे चर्चा चल रही है हो सकता है किसी समाचार चेनल पर इसी बात को ले कर अलग अलग दलो मे बहस भी हुयी हो और मे देख न पाया हूँ। और अभी थोड़ी देर पहले ही मे एक समाचार पत्र की वैबसाइट देख रहा था तो उस पर दिया हुया था "मुंबई सीरियल ब्लास्ट के दो संदिग्धों की पहचान की कोशिश शुरू हो गई है। दादर में सीसीटीवी कैमरे में कैद दो संदिग्धों पर बम प्लांट करने का शक है।"

बुधवार, 13 जुलाई 2011

ये श्रन्धांजलि है नाम उनके जिन्हें ले गया तूफान









फिर गूँज उठा भारत का गौरव
आतंको की ललकारो से
टूट न जाये होसला हमारा
इन दर्द भरी पुकारो से

अभी तो हमको कदम मिलाकर
चलना सबके साथ है
हर अँधेरी रात के बाद
फिर उजयाली रात है

क्या दूँ में इसको नाम अब तो नारों की कमी नहीं है इसके लिए

मुद्दा

हाँ आजकल सभी के मन में एक ही सवाल है की कैसे और कब इस महंगाई से छूटकारा मिलेगा. कोई कहता है "जानलेवा महंगाई" तो कोई कहता है "मार रही है महंगाई" तो कोई कहता है "कमर तोड़ महंगाई" और भी न जाने कितने ही नारे बन चुके है इस महंगाई के ऊपर पर छुटकारा नहीं मिला और तो और एक गाना भी बन गया है की "महंगाई  डायन खाए जात है"।

वैसे तो ये मुद्दा अब आम बन चूका है मेरा ये लेख कोई विशेष या अकेला नहीं है कई हजारो ही लेख इस पर लिखे जा चुके है और सबसे बड़ी बात यह है की जिन लोगो ने ये लेख लिखे है वो मेरे से कही ज्यादा तजुर्बेदार और प्रतिभाशाली है मैं तो बस यूँही अपने मन की भड़ास निकलने के लिए कुछ पंक्तिया लिख रहा हूँ। 

और हाँ एक विशेष बात और की इस महंगाई के साथ साथ अज कल एक बात और काफी जोरो पर है वोह ये की इस सरकार से भी कब आज़ादी मिलेगी। मैं अभी हाल ही में एक ब्लॉग पढ़ रहा  था की अगर आप ब्लाग, सामाजिक वेबसाइट या किसी और इन्टरनेट माध्यम से सरकार की करतूतों को लोगो तक पहुचाते हो तो वो कितने लोगो तक जाती होगी एक हज़ार, दस हज़ार और ज्यादा से ज्यादा एक लाख लोगो तक चलो मान भी लेते है की वो एक लाख लोग इस सरकार के लिए मतदान न करे परन्तु हमारे देश में फिर भी इतने लोग होंगे जिनके बलबूते कोई भी पक्ष विजय घोषित किया जा सकता है कारण बस एक है की जिन लोगो की यहाँ पर बात की गयी है ये वो वर्ग है जो इन्टरनेट से काफी कोसो दूर है हम लोग तो फिर भी कई माध्यम से इस सरकार की करतूतों को जान लेते है पर इन लोगो के पास तो मीडिया ही एक जरिया है और सरकार तो मीडिया पर दबाब डाल कर इन खबरों को गोल कर देती है फिर भला उन लोगो तक ये बात कैसे उजागर हो की जिस पक्ष के लिए उन्होंने मतदान किया था उसने किस प्रकार इनको लुटा है।

एचडीएफसी बैंक के मैनेजिंग डायरेक्टर आदित्य पुरी का मानना है कि महंगाई को काबू में करने के लिए ग्रोथ को थोड़ा कम करना जरूरी हो गया है। ऐसे में आरबीआई की प्रमुख दरों में अब 0.25 या 0.5 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी नहीं होगी। यदि रिजर्व बैंक अपने प्रमुख दरों में बढ़ोतरी करता है तो जरुरी नहीं कि बैंकों का कर्ज महंगाई होगा।

अब इस खबर में मुझे ये समझ नहीं आया की दरो में कम बढोतरी की बात की जरा रही है या महंगाई को कम करने की बात की जारही है। अब तो हर तरफ त्राहि त्राहि मची हुयी है ऐसा लगता है की जल्द ही वाष्प से बना ये गुब्बारा बोहत ही जल्द फूटने वाला है परन्तु ये समझ नहीं आता की नयी सरकार अगर महंगाई को कम करने के लिए जो भी कदम उठाएगी तो क्या मोजुदा सरकार वो कदम नहीं उठा सकती या उठाना नहीं चाहती। मतलब तो मेरा सीधा सा है की सरकार कोई भी हो महंगाई से कैसा निबटारा पाया जाये से सोचना चाहिए नाकि सरकार को ही बदल दिया जाये। ऐसा नहीं है की में किसी का पक्ष ले रहा हूँ मैं तो सिर्फ ये कहना चाहता हूँ सरकार को बदलने के लिए फिर चुनाव और उस पर होने वाले खर्चे....उफ़ फिर वोही रोना कभी कभी ये सब सोच कर सर भी फटने लगता है। खैर ये तो लाज़मी है की जो भी लोग मोजुदा सरकार के कारनामो से भलीभांति परिचित होगी वो तो दोबारा मतदान करने से रही

मुझे समझ नहीं आता की कोन सा बांम भारतीयों के इस दर्द से छुटकारा दिलाने में सफल सिद्ध होगा। महंगाई और भारत में प्रति व्यक्ति आय का कड़वी सच्चाई यह है कि बिहार, असम और झारखंड जैसे गरीब राज्यो΄ मे΄ लोग अपने मासिक बजट की आधी से अधिक राशि महज दो वक्त का भोजन में करने को मजबूर हैं। नेशनल सैपल सर्वे (एनएसएस) की ताजा रिपोर्ट मे΄ यह खुलासा किया गया है। (सोमवार, जुलाई 11, २०११)

कुछ समय पहले तक को माध्यम वर्ग की किसी तरह गाड़ी चल रही थी लेकिन जब से घरेलु गैस के दाम बड़े तब से तो समझो रही सही कसर भी सरकार ने पूरी कर दी।

वैसे तो कई बाते है जो मेरे समझ के परे है उनमे से एक बात है जो मुझे असमंजस में डाल देती है की लगभग 70% से ज्यादा भारतीयों का बसेरा अब भी गाँव में है और वो पूर्ण रूप से कृषि पर आधारित है फिर भी फल, सब्जीया हमारे ही हाथो से परे है और चावल तो ऐसे नखरे दिखता है की पूछो मत.

हाँ ये ज़रूर है की ये महज़ एक शब्द कहो या मीडिया में चर्चा कहो या इन्टरनेट पर सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला विषय कहो बस येही सब बन कर रह गया है क्यों की आम जनता के हाथ में इतनी शक्ति तो है नहीं की वो तख्ता पलट करदे सिर्फ कहने को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हमारे भारत में है. अरे कहे का लोकतंत्र, जन लोकपाल की हालत तो सभी जानते है और कोन सा हमारे देश में प्रधानमंत्री चुनने की शक्ति हमारे पास होती है वो तो जो पार्टी जोड़ तोड़ कर बन जाती है वो फिर खुद ही चुनाव करती है. वैसे तो ये भी एक अपने में बोहत बड़ा मुद्दा है पर इस पर फिर कभी रोशनी डालेंगे

जानता हूँ जानता हूँ मेरे लिखने से कुछ होने वाला तो नहीं है पर हाँ इतना ज़रूर है की में अपनी मन की भावना तो व्यक्त कर ही सकता हूँ इस प्रकार

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छाया श्रेय : OneIndia.com

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

माँ


जिसने मुझे है जनम दिया, नाम एक सुन्दर सा दिया
धुप में, बरसात में छाया मिली मुझे आंचल की

अंगुली थमा कर अपनी, चलना मुझे है जिसने सिखाया
हर मुश्किलों के रास्तो में, जिसने मुझे है ठहरना सिखाया

रंगबिरंगी इस दुनिया में, रंगों में फर्क मुझे है जिसने बताया
ये लेख मेरे है उनकी देन जिसने मुझे है लिखना सिखाया

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

उफ़ .....ये भी देखा है


ये उनके लिए जिने लगता है की मैं लिखता नहीं करता हूँ चोरी
क्या कहोगे तुम मुझसे, मालूम मुझे है की कविताये मेरी है कोरी

समय समय की बात है कभी कोई ज्यादा तो कभी कोई कम
बोलना सब जानते है की तू तू है पर हम नहीं किसी से कम
येही तुम्हारे मन की बात दिल में यही तुम्हारे है अरमा
नहीं देना है तो मत दो बढावा पर क्यों रहे हो शर्मा

हम क्या है ये तुम्हे तो क्या , खुद हमे  भी मालूम नहीं
मेरी हस्ती तो परवरदिगार से है, किसी और में दम नहीं
लिखे हम कितनी भी पंक्तिया उस से फर्क क्या पड़ता है
हमारी मेहनत पर न जाने क्यों लोगो का मुह सड़ता है

बस मन तो यही करता है की कागजों में रख दू विचार
न मिली प्रशंसा तो लिख न पायु इतना भी नहीं हूँ लाचार
तू देख यहाँ पर देख, क्यों लगता है की मैं लिख नहीं सकता
पढना है तो पढ़ले इसे वर्ना नाप सीधे अपना रास्ता

बस अब ज्यादा नहीं लिखता वर्ना लोग मुझे गाली देंगे
अब तो लगता है की वो लोग मुझे बढावा भी जाली देंगे
है सलाम उनको जिनकी बदोलत ये लिखा है मेने
बोल ले तू जो बोलना है की ये भी कंही देखा है तुने

क्या? क्या!!!! कहा "ये भी देखा है", उफ़ अब तो हद ही हो गयी जनाब

सोमवार, 4 जुलाई 2011

मौत की दौड़:- भाग तीन:


मौत की दौड़:- भाग एक:

मौत की दौड़:- भाग दो:



उस दरवाजे का सहारा ले कर उठने की कोशिश कर ही रहा था की वो दरवाजा एक दम से खुल गया मेने अपने सर को उठा कर ऊपर देखा तो में हैरान था ...

अब आगे ...

भाग तीन

दरवाजा स्वतः ही खुल गया था शायद मेरे हाथ रखने की वजह से, क्योकि दरवाजे के अन्दर से कोई बाहर नहीं आया फिर भी मेने अपने आप को तसल्ली देने के लिए धीरे से झांक कर देखा की शायद कोई मेरे डर से अन्दर छुपा हो पर जल्द ही मेरा ये भ्रम भी दूर हो गया मुझे अन्दर झाकने के बाद भी कोई नज़र नहीं आ रहा था और आयेगा भी कैसे अँधेरा जो था
"हे मेरे प्रभु ये बार बार किस दुविधा में डाल देते हो आप " बस ऊपर वाले के तरफ देख कर यही कुछ शब्द बोल सका, नजाने क्यों मुझे डर भी लग रहा था की पता नहीं अब और आगे क्या होगा मेरा मैं तो बस किसी भयानक चलचित्र की तरह हर आने वाले पल का इंतज़ार कर रहा था
क्यों न एक बार घर के अन्दर जा कर देखा जाये अगर कोई मिला भी नहीं तो शायद कुछ खाने का ही इन्तेजाम हो जाये पर ये भी तो हो सकता है की अन्दर लोग मुझे देख कर चोर समझ कर मरने लगे रात का वक़्त वैसे ही है पर अब तो लगता है की भूखे मरने से तो अच्छा है की पिट कर जिंदा रहा जाये तो फिर चोर बनने में क्या हर्ज़ है थोरा सा सहमा हुआ तो था ही फिर भी किसी तरह अपनी हिम्मत जुटा कर उस छोटे से झोपड़े में अन्दर कदम रखा ओ........यहाँ तो कुछ नज़र ही नहीं आ रहा....मैं अपने पैरो को उठा कर चलने की बजाये निचे सरका कर चलने लगा धीरे धीरे आगे की तरफ बड़ ही रहा था की अचानक मेरे पैरो से कुछ टकराया शश.... अरे ये तो कुछ सामान गिरा पड़ा है निचे मेने झुक कर उसे उठाने का प्रयास किया और टटोलने लगा और फिर उठा कर देखा कोई लोहे का डब्बा सा लग रहा था उसकी हाथ में पकडे हुए ही पुनः आगे बड़ा बार बार कुछ न कुछ मेरे पैरो से टकरा रहा था तभी मेरे दिमाग में एक विचार आया मेने झट से अपनी घड़ी उतारी और उसका लाइट वाला बटन दबा कर रखा "वाह रे भगवन " अधिक तो नहीं परन्तु उस घुप अँधेरे से तो सही थी निचे झुक कर चारो तरफ देखने लगा ऐसा लग रहा था की मानो यहाँ लड़ाई हुयी हो और चारो तरफ सामान बिखरा पड़ा था मुझे अन्दर कोई नज़र भी नहीं यहाँ उस हल्की रौशनी में मुझे पता चला की ये झोपड़ी तो शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गयी, खेर थोरी देर में मुझे कुछ फल नज़र आ ही गए पर ये तो काफी दिन पुराने लगते है उन्हें बाहर ला कर चाँद की रौशनी में देख कर खा लूँगा अपनी क़मीज़ में रख कर बाहर लाया ओह मैं तो भूल ही गया की बाहर भी तो अँधेरा ही है फिर क्या बिना धोये, देखे खाने लगा "आह ..." जैसे अमृत हो...दो चार जितने भी थे सब खा गया थोरा अजीब स्वाद तो लगा पर खाने के बाद अब बड़ी रहत महसूस कर रहा हूँ मेने सोचा जब कुछ खाने को मिल गया तो जल भी मिल ही जायेगा तो क्यों न थोरी से और कोशिश की जाए...में बस इसी सोच में डूबा था अभी तो मेरे दिमाग में ये बात तो आ ही नहीं रही थी की झोपड़ी में कोई था क्यों नहीं...बस अपने हलके हलके कदम रखता हुआ में जल की खोज करने लगा एक झोपड़ी से दूसरी, दूसरी से तीसरी सब झोपड़ी छान मरी परन्तु कुछ नहीं मिला में अफ़सोस करता हुआ आगे बड़ ही रहा था की आगे देख कर लग रहा था की आगे पड़े सारे पेड़ से है बड़े बड़े, पेड़ है तो फिर जल भी होगा क्यों न वहां जा कर देखा जाये....नहीं नहीं अगर वहां मेरे लिए कोई मुसीबत कड़ी हो गयी तो फिर क्या करूँगा...क्यों न रात को यहीं रुक कर सुबह जाऊंगा फिर ये रेगिस्तान पार भी कर लूँगा...पर लगता है की मेने ये रेगिस्तान पार कर लिया है. मैं बस अपने ही ख्यालो में खोया हुआ था की अचानक मुझे उसी तरफ से कुछ अजीब से आवाज आती हुयी लगी...बड़ी ही विचित्र सी आवाज है ये पता नहीं किस की है कुछ गुर्राने की सी आवाज थी वो मैं उलटे पांव वापस आ गया और बगल वाली झोपड़ी में जा कर घुस गया और अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया परन्तु नजाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था की वो आवाज़ धीरे धीरे मेरे समीप आ रही थी में समझ नहीं रहा था की क्या करू....कंही यहाँ के लोगो को तो ये....नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता....अगर ये सही है तो मेरा क्या होगा

शेष अगले भाग में...

शनिवार, 25 जून 2011

मेरे देश का एक कड़वा सच

स्थान:  संगम विहार, नयी दिल्ली

वोही रोज़मर्रा की तरह पहले तो मेट्रो में दफ्तर से साकेत तक जाना फिर बस में धक्के खा कर घर पोहुचना येही जिंदगी रह गयी है कल 24 जून यानि शुक्रवार रोज़ की ही तरह बस से उतरा घर जाने के लिए क्यों की मेरा स्टैंड आ गया था संगम विहार जहाँ मेरा घर है पहले तो उतरते के साथ पानी पिया क्यों की गर्मी के मारे काफी बुरा हाल हो जाता है फिर सड़क पार करके जाने लगा जब में दूसरी तरफ पोहचा तो देखा की एक बस खड़ी थी शायद 463 थी आनंद विहार से आंबेडकर डिपो तक की उसके बहार काफी लोगो की भीड़ लगी थी और काफी शोर भी  हो रहा था मै अनायास ही सोचने लगा की पता नहीं क्या हो गया किसी को कोई दिक्कत तो नहीं है बस यही सोच कर जाने लगा की कोई जानने वाला तो नहीं मन मै येही सोच रहा था की कोई जानने वाला न हो. वहां पोहचा तो एक दो लोगो से पूछा पर वो तो देखने मै इतने व्यस्त थे की जैसे कोई जादूगर अपनी कला का प्रदर्शन कर रहा हो फिर क्या? अपने आप ही समझने का प्रयास करने लगा कुछ समझ आ भी रहा था और नहीं भी माहोल कुछ ऐसा था की एक तरफ एक बालक करीब 14-15 वर्ष का होगा वो रो रहा था और एक लड़के को दो लोग मार रहे थे

शनिवार, 18 जून 2011

मौत की दौड़:- भाग दो:

"हे भगवन अब ओर क्या दिखाना बाकी है" मेरे मुख से स्वतः ही ये शब्द फूट पड़े ओर मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था की मेरी छाती फट गयी है पर में उसे देखने की भी हालत में नहीं था अपने को सँभालने की भरपूर कोशिश कर रहा था अब तो बस उस पर ही भरोसा था....

भाग दो से आगे............

मेरी अचानक ही आँख खुली तो मेरे सामने खुला आस्मां नज़र आ रहा था, मेने अपनी आँखों को झपक कर समझने की कोशिश करी की में किधेर हूँ

मौत की दौड़:- भाग एक:

सर पर चिलमिलाती धुप पड़  रही थी, गर्मी के मारे बुरा हाल था पसीने से मेरा बदन पूरा तर था ऐसा लग रहा था की में बारिश में भीग कर आ रहा हूँ और तो और प्यास भी इतनी लग रही थी की चलते हुए मेरे पैर काँप रहे थे मेरे पास जितना भी पानी था वो में पहले ही खत्म कर चुका था पता नहीं क्यों इतनी रौशनी होने के बावजूद भी मेरी आँखों के सामने अँधेरा सा ही लग रहा था बस मेरे अंतर्मन में यही विचार आ रहा था की कंही से एक मात्र बूंद पानी की मिल जाये पर इतने बड़े सुनसान रेगिस्तान में दूर तक पानी तो छोडो एक इंसान भी नज़र नहीं आ रहा था मेरे कदम

गुरुवार, 26 मई 2011

देख तरक्की भारत की

लोग कह रहे देख तरक्की, अपना भारत कैसा अब
ऊची इमारत चौड़ी सड़के, पहले ये नहीं था सब
सरपट चलती रोड पे गाड़ी आसानी से पोह्चाती
इधर उधर तू देख ज़रा तू देख तरक्की भारत की

बुधवार, 25 मई 2011

दिल्ली: एक नज़र

कभी गर्मी पड़े ज्यादा, कभी पड़ती है ज्यादा ठण्ड
कभी गिरती है कुछ बुँदे, कभी पानी से सड़के बंद
मगर तू देख ले कैसी ये मौसम की है अंगड़ाई
नहीं मैं भी समझ पाया नाही तेरे समझ आई