बुधवार, 25 मई 2011

दिल्ली: एक नज़र

कभी गर्मी पड़े ज्यादा, कभी पड़ती है ज्यादा ठण्ड
कभी गिरती है कुछ बुँदे, कभी पानी से सड़के बंद
मगर तू देख ले कैसी ये मौसम की है अंगड़ाई
नहीं मैं भी समझ पाया नाही तेरे समझ आई

यहाँ लोगो का गुस्सा तो सड़को पर ही दीखता है
कंही सस्ता मिले आलू कंही महंगा भी बिकता है
यहाँ पर लोग ऐसे है नहीं जैसे वो लगते है
कंही पर्दानशी दिखे कंही बेपर्दा ही दीखते है

सरपट यहाँ पर दौड़ती मेट्रो की एक रफ़्तार
गाड़ी यहाँ इतनी है की ट्रैफिक की झेलो मार
इसे फिर देख कर तुम बोल पड़ो कहाँ फसे है यार
अब कर भी क्या सकते है ऐसे मे है लाचार

अमीर और गरीब दोनों का यहाँ मेला है
भीड़ होते हुए मुश्किल में क्यों अकेला है
न मंजिल है तेरी न कोई ठिकाना है
क्यों पैसे के लिए भागते ही जाना है

हर मुश्किल को यहाँ  लोग क्यों सहते है
दोषी खुद को नहीं सरकार को वो कहते है
सभी कहते है रिश्वत वो क्यों लेते है
उनको क्या बोले यहाँ, रिश्वत हम खुद ही देते है

भ्रष्टाचारी तो यहाँ बनके नेता बेठा है
मैं शरीफ हु एक बोलता वो रहता है
आम आदमी तो यहाँ ज़ुल्मो को सहता है
कितने ही कष्ट सहे पर एक नहीं वो कहता है

बस यही आलम है यहाँ चारो तरफ हर घर में
ज़ुल्मो से भरा चिट्ठा यहाँ रहता है हर दिल में

यहाँ पैसे का बोलबाला और सच्चे का मुह काला होता है
यही देख कर कभी कभी मेरा मन भी रोता है
कितना कहू मै अब तो शब्द भी नहीं मिलते है
इसी को लोग यहाँ "मेरी जान दिल्ली" कहते है



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