सोमवार, 4 जुलाई 2011

मौत की दौड़:- भाग तीन:


मौत की दौड़:- भाग एक:

मौत की दौड़:- भाग दो:



उस दरवाजे का सहारा ले कर उठने की कोशिश कर ही रहा था की वो दरवाजा एक दम से खुल गया मेने अपने सर को उठा कर ऊपर देखा तो में हैरान था ...

अब आगे ...

भाग तीन

दरवाजा स्वतः ही खुल गया था शायद मेरे हाथ रखने की वजह से, क्योकि दरवाजे के अन्दर से कोई बाहर नहीं आया फिर भी मेने अपने आप को तसल्ली देने के लिए धीरे से झांक कर देखा की शायद कोई मेरे डर से अन्दर छुपा हो पर जल्द ही मेरा ये भ्रम भी दूर हो गया मुझे अन्दर झाकने के बाद भी कोई नज़र नहीं आ रहा था और आयेगा भी कैसे अँधेरा जो था
"हे मेरे प्रभु ये बार बार किस दुविधा में डाल देते हो आप " बस ऊपर वाले के तरफ देख कर यही कुछ शब्द बोल सका, नजाने क्यों मुझे डर भी लग रहा था की पता नहीं अब और आगे क्या होगा मेरा मैं तो बस किसी भयानक चलचित्र की तरह हर आने वाले पल का इंतज़ार कर रहा था
क्यों न एक बार घर के अन्दर जा कर देखा जाये अगर कोई मिला भी नहीं तो शायद कुछ खाने का ही इन्तेजाम हो जाये पर ये भी तो हो सकता है की अन्दर लोग मुझे देख कर चोर समझ कर मरने लगे रात का वक़्त वैसे ही है पर अब तो लगता है की भूखे मरने से तो अच्छा है की पिट कर जिंदा रहा जाये तो फिर चोर बनने में क्या हर्ज़ है थोरा सा सहमा हुआ तो था ही फिर भी किसी तरह अपनी हिम्मत जुटा कर उस छोटे से झोपड़े में अन्दर कदम रखा ओ........यहाँ तो कुछ नज़र ही नहीं आ रहा....मैं अपने पैरो को उठा कर चलने की बजाये निचे सरका कर चलने लगा धीरे धीरे आगे की तरफ बड़ ही रहा था की अचानक मेरे पैरो से कुछ टकराया शश.... अरे ये तो कुछ सामान गिरा पड़ा है निचे मेने झुक कर उसे उठाने का प्रयास किया और टटोलने लगा और फिर उठा कर देखा कोई लोहे का डब्बा सा लग रहा था उसकी हाथ में पकडे हुए ही पुनः आगे बड़ा बार बार कुछ न कुछ मेरे पैरो से टकरा रहा था तभी मेरे दिमाग में एक विचार आया मेने झट से अपनी घड़ी उतारी और उसका लाइट वाला बटन दबा कर रखा "वाह रे भगवन " अधिक तो नहीं परन्तु उस घुप अँधेरे से तो सही थी निचे झुक कर चारो तरफ देखने लगा ऐसा लग रहा था की मानो यहाँ लड़ाई हुयी हो और चारो तरफ सामान बिखरा पड़ा था मुझे अन्दर कोई नज़र भी नहीं यहाँ उस हल्की रौशनी में मुझे पता चला की ये झोपड़ी तो शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो गयी, खेर थोरी देर में मुझे कुछ फल नज़र आ ही गए पर ये तो काफी दिन पुराने लगते है उन्हें बाहर ला कर चाँद की रौशनी में देख कर खा लूँगा अपनी क़मीज़ में रख कर बाहर लाया ओह मैं तो भूल ही गया की बाहर भी तो अँधेरा ही है फिर क्या बिना धोये, देखे खाने लगा "आह ..." जैसे अमृत हो...दो चार जितने भी थे सब खा गया थोरा अजीब स्वाद तो लगा पर खाने के बाद अब बड़ी रहत महसूस कर रहा हूँ मेने सोचा जब कुछ खाने को मिल गया तो जल भी मिल ही जायेगा तो क्यों न थोरी से और कोशिश की जाए...में बस इसी सोच में डूबा था अभी तो मेरे दिमाग में ये बात तो आ ही नहीं रही थी की झोपड़ी में कोई था क्यों नहीं...बस अपने हलके हलके कदम रखता हुआ में जल की खोज करने लगा एक झोपड़ी से दूसरी, दूसरी से तीसरी सब झोपड़ी छान मरी परन्तु कुछ नहीं मिला में अफ़सोस करता हुआ आगे बड़ ही रहा था की आगे देख कर लग रहा था की आगे पड़े सारे पेड़ से है बड़े बड़े, पेड़ है तो फिर जल भी होगा क्यों न वहां जा कर देखा जाये....नहीं नहीं अगर वहां मेरे लिए कोई मुसीबत कड़ी हो गयी तो फिर क्या करूँगा...क्यों न रात को यहीं रुक कर सुबह जाऊंगा फिर ये रेगिस्तान पार भी कर लूँगा...पर लगता है की मेने ये रेगिस्तान पार कर लिया है. मैं बस अपने ही ख्यालो में खोया हुआ था की अचानक मुझे उसी तरफ से कुछ अजीब से आवाज आती हुयी लगी...बड़ी ही विचित्र सी आवाज है ये पता नहीं किस की है कुछ गुर्राने की सी आवाज थी वो मैं उलटे पांव वापस आ गया और बगल वाली झोपड़ी में जा कर घुस गया और अन्दर से दरवाजा बंद कर लिया परन्तु नजाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था की वो आवाज़ धीरे धीरे मेरे समीप आ रही थी में समझ नहीं रहा था की क्या करू....कंही यहाँ के लोगो को तो ये....नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता....अगर ये सही है तो मेरा क्या होगा

शेष अगले भाग में...

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