मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

"आरक्षण" - क्या तात्पर्य है इसका?

"आरक्षण" इस शब्द को सुन कर सब के मन मे अलग अलग विचार आते होंगे। ज़ाहिर सी बात है क्योकि सबकी अपनी अलग अलग धारणा होती है हर चीज़ को ले कर। मेरी भी है। अगर सरल शब्दो मे कहु तो मुझे इस शब्द से कोई आपति नहीं है और नाही उन लोगो से जो इस के तहत फायेदा उठाते है परंतु मुझे आपति उन लोगो से जो गलत फायेदा उठाते है। हालकी हो सकता है की में भी उन लोगो मे शामिल हूँ। वैसे अगर आप इस तरफ एक नज़र डाल कर देखेंगे तो आपको अपने देश मे इतने मुद्दे नज़र आएगे जीतने यहाँ राज्य नहीं है
यदि सभी मुद्दो को अगर सरकार लागू कर देती है तो हमारे देश के इतने हिस्से हो जाएंगे की उन्हे उँगलियो पर गिनना मुश्किल हो जाएगा। गरीबों, दलितों, वंचितों और भी कई है जिन्हे ऐसी सुविधाए उपलब्ध है। और कई कई वर्षो से, मैं नहीं किसी आकडे की बात कर रहा हूँ और न ही रिवाज सा चला आ रहा है की हमे आरक्षण मिलना चाहिए। हाँ मिलना चाहिए पर तुम्हें ऐसा ही क्यो की तुम्हें मिलना चाहिए। पहले जब कानून बनाया गया था तब हमारे देश की शक्ल कुछ थी और आज कुछ है। कोई कहता है की मैं दलित हूँ भले ही उसके घर में दस गाड़िया हो पर फिर भी आरक्षण चाहिए। मैं अल्पसंख्यक हूँ मुझे मिलना चाहिए। कोई कुछ तो कोई कुछ हर दिन कोई नया मुद्दा कोई नयी चर्चा कोई नया आरक्षण, यदि आप जंतर मंतर, दिल्ली आ कर देखोगे तो मेरी बात भी स्पष्ट रूप से समझ आ जाएगी। मेरा सिर्फ यही कहने का मतलब है की क्या हर चीज़ मे आरक्षण घुसना ज़रूरी है। आरक्षण से किसी को मुनाफा हो या नहीं ये तो नहीं मालूम बस मेरी तो दो बाते समझ में आती है पहली की राजनीति के लिए ये सबसे बड़ा मुद्दा है और दूसरी ये की आरक्षण  सबको अपनी जाति याद दिलाता है या दूसरे शब्दो मे कहे तो ये महज अलग करने के लिए खिची गयी लकीर है और जातिवाद एक ऐसा मुद्दा है जिससे आप भी भलीभाँति परिचित है।

क्या आरक्षण सिर्फ गरीबी के नाम पर नहीं हो सकता?
क्या आरक्षण के ऊपर राजनीति करना उचित है?
क्या आरक्षण हमे ये याद नहीं दिलाता की मेरे बगल वाली पंक्ति नीची जात वाले की है?

प्रश्न तो मेरे मस्तिक्ष मे इतने है की लिखते हुये मैं भी थक जाऊंगा। पर मैं करू भी क्या हमारे देश का कानून इतना लचीला है या हमारे देश के लोग इतने होशियार है की हर बात का तोड़ निकाल लेते है। 





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें