रविवार, 6 जनवरी 2013

शायद संवेदनाए लौट आए

'मैं अगर सोंचू की 21वीं सदी का इतिहास मैं कैसे लिखू तो सिर्फ दो खास बाते ही ध्यान में आएँगी। अक यह की पुराने जमाने में गरीब हमेशा हमारे बीच रहते थे।  21वीं सदी में हमने उन्हे हमारे दिल और जमीन से बहिष्क्रत कर दिया। दूसरा यह की 21वीं सदी में हम संवेदनहीन हो गए है। हमने औरों का दर्द महसूस करना बंद कर दिया। दिल्ली में हुईं दर्दनाक घटना के बाद सारा देश एक अनजान लड़की को इंसाफ दिलाने के लिए आवाज़ उठा रहा है। लगता है शायद संवेदनाए लौट आए।...... लेकिन क्या हम हमेशा इसी तरह औरों का दर्द समझ पाएंगे या फिर कुछ समय अंतराल के बाद फिर उसी ढर्रे पर चले जाएंगे।

बहाने

वे लोग जिंदगी बदलने मे सक्षम होते है जो स्पष्टवादी, आत्मविशासी, साहसी और प्रतिबद्ध होते हैं। वंही असंतुष्ट लोग सपनों की दुनिया मे ही जीते है। क्योकि वे अपने चेतन और अवचेतन मन मे लाखो बहाने बनाते है, जो न सिर्फ हानिकारक है बल्कि लोगो को निचले स्तर की जिंदगी जीने पर मजबूर करते है। ये बहाने बनाने वाले न सिर्फ जिंदगी का कम आनंद उठाते है बल्कि अपनी ज़रूरत भी पूरी नहीं कर पाते।
कुछ बहाने आपके समक्ष रखने की कोशिश कर रहा हूँ:
1 पैसे की कमी
2 बदलाव को तैयार न होना
3 जो सोचा वो न हुया तो
4 मैंने अगर ऐसा किया तो लोग क्या कंहेंगे
5 अनजाने काम से डर
6 परिवार की जिम्मेदारियो की औड़ मे दूसरे कामो को ढोना/
7 मुझे नहीं लगता की ऐसा करने से ऐसा होगा
8 मैं ऐसा/ ऐसी ही हूँ

क्या सही और क्या गलत?

मुझे सही और गलत का बोध नहीं है पर इतना जानने का इक्छुक हूँ की यदि ये लोग कालका मंदिर या वंही महरौली के पास छत्तरपुर मंदिर के दर्शन करके आ रहे होते तब कोई हादसा होता तो क्या उस अवस्था मे उन्हे मदद की गुहार करनी चाहिए या ये लोग महज़ दोस्त न हो कर रिश्तेदार होते तब ही उन्हे मदद मांगने का हक़ था न की अब की ये लोग दोस्त और वो भी सिनेमा से मस्ती करके आ रहे थे इसीलिए इन लोगो को मदद मांगने का कोई हक़ नहीं था। पता नहीं क्यो लोगो की बात मुझे थोड़ा सा झकझोर रही है की क्या वो लड़का हमारी कमियो को, हमारे कानून को, हमारी व्यवस्था को हमसे रुबुरु करा रहा है तो गलत कर रहा है। खेर वो लोग कहा से आ रहे थे क्या कर रहे थे क्यो कर रहे थे किस लिए कर रहे थे सब इस पर क्यो विचार कर रहे हैं जब से उस लड़के ने बयान दिया है इस पर क्यो विचार नहीं कर रहे की घटना बाद का असली जिम्मेदार कौन है वो लड़का की वो सीधे खुद अस्पताल क्यो नहीं गया या वो लोग जो करीब थे घटना के बाद या वो कानून जो लाचार है कई कारणो से। मेरा खुद इस कानून और मेरी तरह भारतीयो के साथ एक तजुर्बा रह चुका है वो वक़्त ऐसा था की मैं अगर अब भी सोचता हूँ तो लगता है की क्या वाकई मे हमारे कानून मे इतनी गठाने है की जिन्हे खोलते खोलते पीड़ित व्यक्ति दम तौड़ दे। शायद मेरी भावना को आप समझ पाये हो।

क्योकि कानून में नहीं "नेकी कर भूल जा" की इजाजत

लोग आते, रुकते, देखते और आगे बढ़ जाते है। चाहे आप कितने भी खून से लथपत रोड किनारे क्यो न पड़े हो। शर्मनाक है की राजधानी जैसे शहरो मैं ऐसा ज्यादातर होता की लोग रोड दुर्घटनायो मैं मदद करने से कतराते है कोई भी हाथ लगाने तक को तैयार नहीं होता।

मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा क्योकि हाल ही मे दिल्ली में हुयी घटना में ऐसा देखा गया बल्कि इसलिए कह रहा हूँ क्योकि मदद करने के बाद क्या होता है उसका मे भुक्त भोगी हूँ

आखिर क्यो होता है ऐसा।

क्योकि कानून में नहीं "नेकी कर भूल जा" की इजाजत

धर्म भी कहता है की वो लोग महान है जो जरूरतमंदों की मदद तो करता है परंतु बदले में कुछ नहीं चाहता। नाम भी नहीं। बाहर के कई देशो मे ऐसे लोगो की पहचान गुप्त रखने का प्रावधान है। लेकिन भारत में उल्टा है यदि आप किसी घायल या पीड़ित की मदद की तो पुलिश गवाह बना लेती है, फिर चश्मदीद गवाह बनने का दबाब। कोर्ट में 'तारीख-पर-तारीख' का फेर। यानि नेकी करने के बाद पुलिस और कानून उसे भूलने नहीं देते। वक्त-बेवक्त बयान के लिए याद किया जाता है। प्रभावशाली आरोपी के गुस्से का सामना भी करना पड़ता है। सर्वे कुछ ऐसा बताते है की 50 प्रतिशत से ज्यादा दुर्घटना के बाद मृत्यु सिर्फ इस वजह से हो जाती है की उन्हे समय पर ऊपचार नहीं मिल पता। हलाकी पिछले कुछ वर्षो मे ऐसा कानून बनाने पर ज़ोर भी दिया गया पर गत अक्तूबर-2012 में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा की यदि ऐसा कोई कानून बना तो हमलावर ही पीड़ित को अस्पताल छोड़ेगा फिर बिना पहचान दिये चला जाएगा।

अब हमारी माननीय सरकार से ये पुछो की आरोपी को पकड़ने से ज्यादा जरूरी पीड़ित की जान नहीं बचानी चाहिए।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

"आरक्षण" - क्या तात्पर्य है इसका?

"आरक्षण" इस शब्द को सुन कर सब के मन मे अलग अलग विचार आते होंगे। ज़ाहिर सी बात है क्योकि सबकी अपनी अलग अलग धारणा होती है हर चीज़ को ले कर। मेरी भी है। अगर सरल शब्दो मे कहु तो मुझे इस शब्द से कोई आपति नहीं है और नाही उन लोगो से जो इस के तहत फायेदा उठाते है परंतु मुझे आपति उन लोगो से जो गलत फायेदा उठाते है। हालकी हो सकता है की में भी उन लोगो मे शामिल हूँ। वैसे अगर आप इस तरफ एक नज़र डाल कर देखेंगे तो आपको अपने देश मे इतने मुद्दे नज़र आएगे जीतने यहाँ राज्य नहीं है

सोमवार, 23 जनवरी 2012

अब तो विचारो पर भी रोक लगेगी भईया।

अजीब लगा क्या? अजीब तो लगेगा ही क्योकि अगर आपको कोई बोले के अब आप अपने विचारो को, अपनी सोच को वक्तीगत रूप से प्रस्तुत नहीं कर सकते तो अजीब लगना तो लाज़मी हैं। हमारे माननीय टेलिकॉम मिनिस्टर कपिल सिब्बल जी के बयान से तो ऐसा ही लगता है।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

क्या सही मे गांधीगिरी?











क्या सही मे गांधीगिरी या महज़ भेड़चाल
या कहे की यही वक़्त भ्रष्ट का ये काल है
जाना नहीं लोकपाल इसमे है क्या बवाल
चल दिये पीछे-पीछे, सभी यहाँ बेहाल है